बिधार्थी

 

 विजय के लिये आह्वान

 

   मेरे वीर छोटे सिपाहियो ! मै तुम्हारा अभिवादन करती हूं । मै विजय के साथ मिलने के लिये तुम्हारा आह्वान करती हूं ।

 

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  तुम जो युवा हो, तुम ही देश की आशा हो । इस प्रत्याशा के योग्य बनने के लिये तैयारी करो ।

आशीर्वाद ।

 

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  एक चीज के बारे मे तुम शिक्षित हो सकते हो-तुम्हारा भविष्य तुम्हारे हो हाथों में है । तुम वही आदमी बनोगे जो तुम बनना चाहते हो । तुम्हारा आदर्श और तुम्हारी अभीप्सा जितने ऊंचे होंगे, तुम्हारी सिद्धि भी उतनी ही ऊंची होगी । लेकिन तुम्हें दृढ़ निक्षय रखना चाहिये और अपने जीवन के सच्चे लक्ष्य को कभी न भूलना चाहिये ।

 

(२-४-१९६३)

 

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   युवा होने का अर्थ है  भविष्य मे जीना ।

 

  युवा होने का अर्थ है हमें जो कुछ होना चाहिये वह बनने के लिये, हम जो कुछ हैं उसे छोड़ने के लिये हमेशा तैयार रहना !

 

युवा होने का अर्थ हैं कभी यह न स्वीकार करना कि कोई चीज सुधार नहीं जा सकती ।

 

(२८-३-१९६७)

 

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   केवल वही वर्ष जो व्यर्थ में बिताये जाते हैं तुम्हें का बनाते हैं ।

 

  जिस वर्ष में कोई प्रगति नहीं की गयी, चेतना में कोई वृद्धि नहीं हुई, पूर्णता की ओर कोई अगला कदम नहीं उठाया गया वह वर्ष व्यर्थ में बिताया गया ।

 


  अपने जीवन को अपने-आपसे कुछ उच्चतर और विशालतर वस्तु की चरितार्थ करने पर एकाग्र करो तो तुम्हें बीतते हुए वर्षों का भार कभी न लगेगा ।

 

(२१-२-१९५८)

 

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 तुम जितने वर्ष जिये हो उनकी संख्या तुम्हें बूढ़ा नहीं बनाती । तुम बूढ़े तब होते हो जब प्रगति करना बंद कर दो ।

 

   जैसे ही तुम्हें लगे कि तुम्हें जो कुछ करना था वह कर चुके, जैसे हीं तुम अनुभव करो कि तुम्हें जो कुछ जानना था वह जान चुके, जैसे हीं तुम बैठकर अपने परिश्रम का फल भोगना चाहो और यह सोचों कि तुम जीवन मे काफी कुछ कर चुके हों तो तुम एकदम बूढ़े हो जले हीं और तुम्हारा क्षय शुरू हो जाता है ।

 

   इसके विपरीत, जब तुम्हें यह विश्वास हो कि जो जानना बाकी है उसको तुलना मे तुम जो जानते हो वह कुछ भी नहीं है, जब तुम्हें लगे कि तुमने जो कुछ किया है वह जो कुछ करना बाकी ३ उसका केवल आरंभ बिंदु है, जब तुम भविष्य को प्राप्त करने योग्य अनंत संभावनाओं से भरे चमकते सूर्य के रूप मे देखो तब तुम युवा हो । तुमने धरती पर चाहे जितने वर्ष बिताये हों तुम युवा और भार्यों कल की उपलब्धियों से समृद्ध हो ।

 

  और अगर तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा शरीर तुम्हें धोखा दे तो व्यर्थ की उत्तेजना मे अपनी शक्ति नष्ट करने से बचो । तुम जो भी करो, शांत, स्थिर और प्रकृतिस्थ होकर करो । शांति और नीरवता मे अधिकतम शक्त्ति है ।

 

(२१-२-१९६८)

 

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 सुखी और सार्थक जीवन के लिये आवश्यक तत्त्व हैं निष्कपटता, विनय, अध्यवसाय और प्रगति के लिये कभी न बुझनेवाली प्यास । और सबसे बढ़कर तुम्हें प्रगति की असीम संभावना के बारे में विश्वास होना चाहिये । प्रगति हीं यौवन है । सौ वर्ष की अवस्था मे मी तुम युवक हों सकते हों ।

 

(१४-२-१९७२)

 

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 अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य लक्ष्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों का समाधान मिल जायेगा ।

 

बूढ़ा न होने का सबसे अच्छा तरीका हैं प्रगति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना ।

 

(१८-१-१९७२)

 

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 शाश्वत यौवन का रहस्य है हर क्षण नये जीवन मे पुनरुज्जीवित होना ।

 

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  आदमी को हमेशा केवल बौद्धिक ढंग से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक ढंग से मी सीखते रहना चाहिये, उसे चरित्र की दृष्टि सै प्रगति करनी चाहिये, अपने अंदर गुण उपजाने और दोष ठीक करने चाहिये; हर चीज को अपने अज्ञान और अक्षमता को दूर करने का अवसर बनाना चाहिये; तब जीवन बहुत अधिक समय और ज़ीने का कष्ट उठाने योग्य बन जाता है ।

 

(२७ -१ -१९७२)

 

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  बच्चा अपने विकास के बारे मे चिंता नहीं करता, वह बस बढ़ता जाता है ।

 

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  बच्चे के सरल विश्वास मे बड़ी शक्ति होती है ।

 

(१७-११ -१९५४)

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   जब बच्चा सामान परिस्थितियों मे रहता है, तो उसे सहज विश्वास होता है कि उसे जिन चीजों की जरूरत होगी वै सब उसे मिल जिर्यिगी ।

 

   यह विश्वास जीवन-भर अडिग बना रहना चाहिये; लेकिन बच्चे के अंदर अपनी आवश्यकताओं का सीमित, अज्ञान-भरा और ऊपरी भान होता है, उसकी जगह उत्तरोत्तर, अधिक विशाल, अधिक गहरे और अधिक सत्य विचार को लेना चाहिये जो परम प्रज्ञा के साथ मेल खाता हो, यहांतक कि हमें यह अनुभव हा जाये कि केवल भगवान् ही जानते हैं कि हमारी सच्ची आवश्यकताएं क्या हैं और हम हर चीज के लिये उन्हीं पर निर्भर रह सकें ।

 

(१९-११-१९५४)

 

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  सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण शर्त है विश्वास, एक बालक का-सा विश्वास और यह सरल भाव कि जरूरी चीज आ जायेगी, इसके बारे मे कोई प्रश्र हीं नहीं । जब बच्चे

 

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को किसी चीज की जरूरत होती है तो उसे विश्वास होता हैं कि वह है आ जायेगी । इस प्रकार का सरल विकास या निर्भरता सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण शर्त  ।

 

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  बच्चों में भय क्यों होता हैं? क्योंकि बे कमजोर होते हैं ।

 

  वे अपने चारों ओर के वयस्क लोगों से शारीरिक तौर पर कमजोर होते हैं और साधारणत: प्राणिक और मानसिक तौर पर मी कमजोर होते हैं । भय हीनता-भाव सें पैदा होता हैं ।

 

  फिर भी, उससे छुटकारा पाने का एक उपाय है, और वह हैं : भागवत कृपा पर विश्वास रखना और सभी परिस्थितियों में रक्षा के लिये उसी पर निर्भर रहना ।

 

  तुम जैसे-जैसे विकसित होते जाओगे, वैसे-वैसे यदि तुम अपने अंदर अंतरात्मा- यानी, अपनी सत्ता के सत्य-के साथ संपर्क को विकसित होने दो, तो अपने भय पर विजय पाते जाओगे और हमेशा यह प्रयास करो कि तुम जो कुछ सोचों, जो कुछ बोलों, जो कुछ करो वह सब इस सत्य की अधिकाधिक अभिव्यक्ति हो ।

 

  जब तुम सचेतन रूप से उसमें निवास करोगे, तो फिर तुम्हें अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी चीज का भय न रहेगा, क्योंकि तुम उस वैश्व 'सत्य' के साथ एक होंगे जो संसार पर शासन करता है ।

 

(८-८-१९६४)

 

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  मधुर मां

 

    कोई बालक अपने मां-बाप या अध्यापकों की सहायता के बिना यह कैसे जान सकता है कि वह क्या है?

 

तुम्हें अपने-आप उसका पता लगाना चाहिये, लेकिन अपने मन के दुरा नहीं । केवल चैत्य पुरुष ही तुम्हें बता सकता है ।

 

मधुर मां

 

  हमें बचपन में  बताया जाता है कि यह अच्छा हैं और वह बुरा है और हम सारे जीवन यही रट लगाये कथे हैं कि यह अच्छा है और वह बुरा है वास्तव में यह कैसे जाना जाये कि क्या अच्छा है और क्या बुरा?

 

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तुम सत्य को तभी जान सकते हो जब तुम भगवान् के बारे में सचेतन होते हों ।

 

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   मैं मूल-म्राति से कैसे बच सकता हूं?

 

यह जानकर कि सत्य क्या हैं ।

 

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प्रभो, हम तुझसे प्रार्थना करते है :

हम ज्यादा अच्छी तरह समझ सकें कि हम यहां क्यों हैं,

हमें जो करना है उसे ज्यादा अच्छी तरह कर सकें,

हमें यहां जो बनना चाहिये वह बन सकें,

ताकि तेरी इच्छा सामंजस्य के साथ पूरी हों सकें ।

 

(१५-१-१९६२)

 

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  हमारा हर रोज और हर समय का प्रयास यही हो कि हम 'तुझे' ज्यादा अच्छी तरह जान सकें और 'तेरी ' सेवा ज्यादा अच्छी तरह कर सकें ।

 

(१-१-१९७३)

 

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  मधुर मां, वर दे कि इस क्षण और सदा हीं हम तेरे सरल बालक बने रहें, और हमेशा तुझे अधिकाधिक प्यार करते चलें ।

 

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मेरी एक छोटी-सी अम्मी रहती मेरे हिय में;

हम दोनों मिल मुदित हुए हैं, कभी न बिछुड़े जिया मे ।

 

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मधुर मां

 

  क्या जब कभी मैं आपको बुलाता हू तो आप सुन सकतीं हैं?

 

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मेरे प्रिय बालक,

 

  विश्वास रखो कि तुम जब कभी मुझे बुलाते हो तो मै सुनती हूं और मेरी सहायता और मेरी शक्ति सीधी तुम्हारी ओर जाती हैं ।

 

मेरे आशीर्वाद सहित ।

 

 

(१-६-१९६०)

 

शुभ जन्मदिन ।

 

  मैं पूरे दिल के साथ तुम्हें अपनी बांहों में भरती हूं और तुम्हारी उच्चतम अभीप्सा की पूर्ति के लिये आशीर्वाद देती हू ।

 

सप्रेम ।

 

(३०-८-१९६३)

 

शुभ जन्मदिन ।

 

  गुलाबों (समर्पण) के एक पूरे गुच्छे के साथ ताकि तुम्हारी अभीप्सा चरितार्थ हों और तुम मेरे आदर्श बालक बन जाओ, अपनी अंतरात्मा और अपने जीवन में सच्चे लक्ष्य से अवगत रहो ।

 

  मेरे प्रेम और आशीर्वाद सहित !

 

(३०-८-१९६४)

 

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 छात्रावास के विधार्थियों के लिये संदेश

 

 ('दॉर्त्वारं छात्रावास के विधार्थियों के लिये संदेश)

 

  हम सब अपनी दिव्य जननी के सच्चे बालक बनना चाहते हैं । लेकिन मधुर मां, उसके लिये हमें धीरज और साहस, आज्ञाकारिता, सद्भावना, उदारता और निः स्वार्थता तथा अन्य सभी आवश्यक गुण प्रदान कर ।

 

   यहीं हमारी प्रार्थना और अभीप्सा हैं ।

 

(१५-१-११४७)

(बड़े लड़कों के छात्रावास के लिये)

 

   यह दिन तुम्हारे लिये एक नये जीवन का आरंभ हो, एक ऐसे जीवन का जिसमें तुम यह अधिकाधिक जानने की कोशिश करो कि तुम यहां क्यों हों और तुमसे क्या आशा की जाती है ।

 

   हमेशा अपनी पूर्णतम और सत्यतम पूर्णता को चरितार्थ करने की अभीप्सा में रहो । और आरंभ के लिये स्वयं अपने ऊपर लगाये गायें नियंत्रण मे ईमानदार, सच्चे, सीधे-सादे, उदात्ता और पवित्र होने की चेष्टा करो ।

 

  मै हमेशा सहायता करने और राह दिखाने के लिये तुम्हारे साथ रहूंगी ।

 

  मेरे आशीर्वाद ।

 

(१९६३)

 

 (संलग्न 'दॉर्त्वारं छात्रावास के लिये)

 

   आज हम सब जो एक सामूहिक स्मरण मे इकट्ठे हुए हैं, यह अभीप्सा करते हैं कि यह तीव्रता उस सच्चे ऐक्य का प्रतीक हो जो सदा-सर्वदा अधिक सच्ची और अधिक पूर्ण उपलब्धि के लिये प्रयास पर आधारित हो ।

(१५-१-१९६८)

 

(युवकों का छात्रावास)

 

  हमेशा अपने 'आदर्श' के प्रति निष्ठावान ओर अपनी क्रिया मे सच्चे और निष्कपट रहो ।

 

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